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छाती और फेफड़ों के रोगों के लिए होम्योपैथिक उपचार

  • Writer: Rakesh Kumar Pandey
    Rakesh Kumar Pandey
  • Jul 10, 2020
  • 8 min read

#छाती और #फेफड़ों के #रोगों के लिए #होम्योपैथिक उपचार


#तपेदिक-क्षयरोग (टी.बी)



परिचय-


#टी.बी. रोग एक कीटाणु के कारण फैलता है जिसको ट्युबर्क्युलोसिस कहा जाता है। यह संक्रामक रोग होता है। इस रोग को वैसे तो अनुवांशिक रोग नहीं कहा जाता लेकिन फिर भी अगर किसी के वंश में पहले यह रोग रहा होता है तो आने वाली पीढ़ियों को भी यह रोग जल्दी पकड़ लेता है। यह कीटाणु समुन्द्र के बीच या पहाड़ों की चोटी को छोड़कर हर जगह पाया जाता है। यह कीटाणु कमजोर व्यक्तियों को बहुत जल्दी पकड़ लेता है। शरीर के किसी भी अंग में यह रोग हो सकता है लेकिन फिर भी यह ज्यादातर फेफड़ों और आंतों में ही होता है। आंतों पर इस कीटाणु का हमला फेफड़ों से निकले थूक के कारण होता है। जिन रोगियों को फेफड़े की टी.बी. होती है वे अगर अपने थूक को वापस निगल जाते हैं तो उन्हें आंतों की टी.बी. हो जाती है। इसके अलावा गले की ग्रंथियों और हडि्डयों में भी टी.बी का रोग हो सकता है।


लक्षण-


टी.बी. रोग के लक्षणों में रोगी को सबसे पहले हर समय थोड़ी-थोड़ी सूखी खांसी होती रहती है।

रोगी को होने वाली खांसी अक्सर रात को सोते समय या सुबह उठते ही शुरू हो जाती है।

रोगी की बहुत तेज काटता हुआ सा छाती में दर्द होता है और फिर बहुत सारा थूक निकलता है।

रोगी का वजन दिन पर दिन कम ही होता रहता है।

रोगी का शरीर बिल्कुल कमजोर सा पड़ जाता है, चेहरे का रंग पीला हो जाता है और दोपहर के समय रोगी के गालों पर कृत्रिम लाली सी आ जाती है।

रोगी को रोजाना बुखार आने लगता है और रात के समय बहुत ज्यादा पसीना आता है।

रोगी की नाड़ी बहुत तेज हो जाती है और रोग बढ़ने पर फेफड़ों से खून आ जाता है।

होमियोपैथि से रोग का उपचार


तपेदिक (टी.बी.) की आशंका (Threatened Consumption)


1. कैलकेरिया-कार्ब- अगर रोगी की प्रकृति ठण्डी हो, रोगी का मोटापा काफी तेजी से बढ़ रहा हो, रोगी दूध पीता है तो वह उसे हजम नहीं होता, रोगी को हर समय खट्टी-खट्टी डकारें आती रहती हैं, रोगी को मांस नहीं पचता हो, शरीर में बहुत ज्यादा कमजोरी आ रही हो, पूरा शरीर हर समय पसीने से भीगा रहता हो। रोगी स्त्री का मासिकस्राव रुक गया हो ऐसे लक्षणों में उसे हर 6 घंटे के बाद कैलकेरिया-कार्ब औषधि देने से लाभ मिलता है।


2. कैलकेरिया आयोडाइड- गर्म प्रकृति के रोगियों को, रोगी दूध पीता है तो उसे हजम नहीं होता, रोगी को हर समय खट्टी-खट्टी डकारें आती रहती हो, रोगी को मांस नहीं पचता हो, शरीर में बहुत ज्यादा कमजोरी आ रही हो, पूरा शरीर हर समय पसीने से भीगा रहता हो। रोगी स्त्री का मासिकस्राव रुक गया हो आदि लक्षणों के साथ-साथ अगर रोगी पतला हो रहा हो तो इन लक्षणों के आधार पर रोगी को अगर टी.बी रोग होने की आशंका हो तो उसे हर 6 घंटे के बाद कैलकेरिया आयोडाइड औषधि की 3x मात्रा का सेवन कराना अच्छा रहता है।


3. आयोडियम (आयोडम)- ऐसे स्त्री-पुरुष जो समय से पहले ही बूढ़े दिखाई देने लगते हैं, जिनको हर समय छाती में किसी तरह की परेशानी रहती है, जिसके कारण वे ज्यादा ऊंचाई पर चढ़ने में असमर्थ हो जाते हैं, गर्म कमरे में नहीं रह सकते, उनको बलगम सख्त और खून के साथ आता है। ऐसे रोगी जिन्हें भूख तो बहुत लगती है लेकिन फिर भी वह कमजोर ही रहते हैं। ऐसे लोग जल्दी-जल्दी बढ़ने के साथ शरीर से कमजोर होते रहते हैं। उन्हें हर समय सूखी खांसी रहती है। इस तरह के लक्षणों में रोगी को टी.बी रोग होने की आशंका होने पर आयोडियम औषधि की 2x मात्रा हर 6 घंटे के बाद देना लाभकारी रहता है।


4. बैसीलीनम- रोगी का बिल्कुल दुबला-पतला सा हो जाना, रोगी के कंधे झुके हुए रहना, रोगी की छाती में हर समय परेशानी रहने के साथ छाती बिल्कुल सपाट सी रहती है। रोगी हर समय थका-थका सा रहता है उसे अगर कोई काम करने को कहो तो वह उसे करता ही नहीं है। अगर रोगी को खांसी-जुकाम हो जाता है तो उसकी चिकित्सा करने से भी ठीक नहीं होती। इस तरह के लक्षणों में रोगी को टी.बी रोग की आशंका होने पर बैसीलीनम औषधि की 200 शक्ति, 1m या cm की मात्रा हर दूसरे या तीसरे सप्ताह में देना अच्छा रहता है।


टी.बी रोग की दो मुख्य औषधियां (टु इमपोर्टेन्ट रेमेर्टन फॉर टी.बी.) :-


1. कैलि-कार्ब- कैलि-कार्ब औषधि को टी.बी रोग की एक बहुत ही असरकारक और जरूरी औषधि माना जाता है। शायद टी.बी रोग का ऐसा कोई रोगी न हो जिसे इस रोग में कैलि-कार्ब दिए बिना ठीक किया गया हो। इस औषधि को बहुत सोच-समझकर दोहराना चाहिए क्योंकि यह बहुत ही प्रभावशाली औषधि होती है। यह औषधि उन रोगियों के लिए भी बहुत अच्छी रहती है जिन्हें प्लुरिसी रोग (फेफड़ों की परत में पानी भर जाना) होने के बाद टी.बी का रोग हो जाता है। रोगी की छाती में ऐसा दर्द उठता है जैसे कि किसी ने उसमें सुई घुसा दिया हो, रोगी को थूक थक्को के रूप में आता है, पैरों के तलवों पर जरा सा स्पर्श भी रोगी को कष्ट देने लगता है, रोगी का गला बैठ जाता है, सुबह के समय रोगी को बहुत तेज खांसी उठती है, जिसमें थोड़ी सी खांसी में ही बलगम निकल जाता है और उसमें थोड़ा सा खून भी मिला होता है। इस रोग के लक्षण सुबह के 3-4 बजे तेज होते हैं। रोगी की आंख की पलक के ऊपर सूजन आना भी टी.बी. रोग का एक महत्वपूर्ण लक्षण है। इन सब टी.बी. रोग के लक्षणों में कैलि-कार्ब औषधि रोगी को जीवनदान देने का काम करती है।


2. आर्सेनिक-आयोडियम- आर्सेनिक आयोडियम औषधि हर प्रकार के टी.बी रोग में बहुत ही खास भूमिका निभाती है। रोगी को ठण्ड लगने के कारण जुकाम हो जाता है, वजन दिन पर दिन कम ही होता रहता है। ऐसे रोगी जिनको अभी-अभी टी.बी रोग हुआ ही हो, दोपहर के समय रोगी का बुखार तेज हो जाता है, पसीना बहुत ही ज्यादा आता हो, शरीर कमजोर होता जाता है। इस तरह के लक्षणों में आर्सेनिक आयोडियम बहुत ही असरकारक रहती है। रोगी को टी.बी रोग में इस औषधि की 3x की 0,.26 ग्राम की मात्रा रोजाना दिन में 3 बार देनी चाहिए। कभी-कभी इस औषधि की उल्टी प्रतिक्रिया होने से रोगी के पेट में दर्द भी हो सकता है और दस्त आने लगते हैं। ऐसी हालत में रोगी को यह औषधि देना बन्द कर देना चाहिए।


फेफड़ों की टी.बी. तथा खांसी-


टी.बी. रोग सबसे पहले रोगी के फेफड़ों पर हमला करता है। रोगी को हर समय थोड़ी-थोड़ी सी खांसी होती रहती है। इस तरह की खांसी कभी-कभी तर भी हो जाती है और रोगी का बलगम अपने आप ही निकल जाता है। इस बलगम को कभी-कभी रोगी पेट में भी निगल जाता है। जिससे रोगी को आंतों की टी.बी. हो जाती है।


आंतों की टी.बी की मुख्य औषधियां इस प्रकार है।


1. फास्फोरस- फास्फोरस औषधि को टी.बी रोग की एक बहुत ही असरकारक औषधि माना जाता है। इस औषधि का फेफड़ों और हडि्डयों पर बहुत ही अच्छा असर होता है। जिस समय टी.बी. रोग की शुरुआत ही हुई हो उस समय यह औषधि देना अच्छा रहता है। रोगी की छाती सिकुड़ सी जाती है। रोगी का शरीर बिल्कुल दुबला-पतला सा हो जाता है। रोगी को ठण्ड लगकर छाती में बैठ जाती है जिसके कारण उसकी छाती में घड़घड़ाहट सी होती रहती है, बलगम छाती में चिपका रहता है, रोगी को खांसते-खांसते कंपकंपी सी होने लगती है। रोगी की छाती और गर्दन सूख जाती है। रोगी की खांसी बढ़ने पर टी.बी. का रोग बन जाती है। रोगी को तेज बुखार होने लगता है, रात को पसीना बहुत ज्यादा आता है, दोपहर के समय बुखार तेज हो जाता है जो आधी रात तक बना रहता है। ऐसे में फॉसफोरस औषधि का सेवन अच्छा रहता है। लेकिन रोगी को यह औषधि सिर्फ टी.बी. रोग की शुरुआत में ही देनी चाहिए। जब टी.बी. के सभी लक्षण रोगी में हो तो इस औषधि की 30 से नीचे और 30 से ऊपर की शक्ति रोगी को नहीं देनी चाहिए।


2. लाइकोपोडियम- ऐसे रोगी जिनको न्युमोनिया या सांस की नली का रोग होने पर अगर रोगी पूरी तरह से ठीक नहीं हो पाता तथा उनके फेफड़ों में सूजन आ जाती है। यह सूजन ही बाद में टी.बी का रोग बन जाती है। रोगी के फेफड़े का बहुत ज्यादा भाग रोगग्रस्त हो जाना, रोगी को कब्ज हो जाना, पेशाब का बहुत ज्यादा गाढ़ा सा आना आदि लक्षणों में लाइकोपोडियम औषधि की 30 शक्ति का प्रयोग अच्छा रहता है।


3. हिपर-सल्फ- अगर रोगी का फेफड़ा काफी सख्त पड़ जाता है, छाती में बलगम की घड़घड़ाहट सी होती रहती है, रोगी को खांसी के साथ बहुत ज्यादा मात्रा में पीला सा बलगम निकलता है। टी.बी रोग के सारे लक्षण रात को बढ़ जाने आदि में रोगी को हर 2 घंटे के बाद हिपर सल्फ की 6 शक्ति देना लाभकारी रहता है।


4. ब्रायोनिया- अगर रोगी को सुबह-सुबह बहुत ज्यादा खांसी उठती है, खांसते-खांसते रोगी की छाती में काटने जैसा दर्द होता है, रोगी के कंधों के बीच के भाग में भी दर्द होने लगता है तो उस समय रोगी को ब्रायोनिया औषधि की 30 शक्ति देना लाभकारी रहता है।


5. ड्रौसेरा- अगर रोगी को खांसी पड़ जाती है या जो कुछ भी रोगी ने खाया-पिया होता है वह खांसते-खांसते बलगम के साथ बाहर निकल जाता है। इस तरह के टी.बी रोग के लक्षणों में रोगी को ड्रौसेरा औषधि की 12 शक्ति देने से लाभ मिलता है।


6. स्टैनम- रोगी को दिन में आने वाले थूक का स्वाद मीठा सा होना, उसकी छाती बिल्कुल सपाट सी हो तो रोगी को स्टैनम औषधि की 30 शक्ति का सेवन कराना अच्छा रहता है।


7. कार्बो-एनीमैलिस- किसी रोगी को फेफड़ों की टी.बी. की आखिरी दशा में जब खांसी उठती है, रोगी का गला बन्द सा हो जाता है, खांसते-खांसते रोगी का पूरा शरीर कांपने लगता है, रोगी को पीब जैसा बदबूदार थूक निकलता है और रोगी खांसते-खांसते हांफने लगता है। टी.बी. रोग के इस तरह के लक्षणों में रोगी को कार्बो-एनीमैलिस औषधि की 30 शक्ति देनी चाहिए।


ग्रंथियों और हडि्डयों की टी.बी.-


8. ड्रौसरा- ग्रन्थियों तथा हडि्डयों की टी.बी. होने पर सबसे ज्यादा ड्रौसेरा औषधि का प्रयोग किया जाता है। टी.बी. रोग में अगर गले की ग्रंथियां न पका हो तो इस औषधि के सेवन से होने वाले घाव का छेद बहुत छोटा सा होता है, पुरानी पकी हुई ग्रन्थियां बहुत छोटी होती चली जाती है और ठीक हो जाती है। इस औषधि के सेवन से रोगी का स्वास्थ्य ठीक होने लगता है, रोगी की सेहत पहले से अच्छी हो जाती है, चेहरे पर चमक आ जाती है। जिन व्यक्तियों को पुराना आनुवांशिक टी.बी. रोग चला आ रहा होता है उनको जोड़ों और हडि्डयों में होने वाले दर्द तथा दूसरे रोगों में भी यह औषधि लाभदायक रहती है। चाहे उन्हें टी.बी. रोग हो ही नहीं। इस औषधि की 30 शक्ति की सिर्फ एक मात्रा ही देनी चाहिए। इसे बार-बार नहीं दोहराना चाहिए।


9. साइलीशिया- साइलीशिया औषधि गले की सख्त ग्रन्थियों की टी.बी. में लाभदायक रहती है। रोगी के पैरों में बदबूदार पसीना आने पर, सोते समय रोगी के सिर पर बहुत ज्यादा पसीना आता है। रोगी बहुत ज्यादा डरपोक प्रकृति का हो जाता है, उसका आत्मविश्वास समाप्त हो जाता है। रोगी को नमीदार ठण्ड पसन्द नहीं आती वह सिर्फ खुश्क ठंण्ड पसन्द करता है, लेकिन यह रोगी शीत प्रकृति का ही होता है। इस प्रकृति के साथ अगर रोगी को हडि्डयों या ग्रन्थियों की टी.बी. होती है तो यह औषधि उसे ठीक कर देती है। रोगी को यह याद रखना चाहिए कि यह औषधि बहुत ही तेज होती है।


10. सिम्फाइटम- सिम्फाइटम औषधि अस्थिभंग हडि्डयों का टूटना में बहुत ही असरकारक मानी जाती है। हडि्डयों की टी.बी. में जख्म हडि्डयों के अन्दर पहुंच जाता है उस समय यह औषधि बहुत लाभ करती है। इसके अलावा यह औषधि टूटी हडि्डयों को जोड़ने में भी मदद करती है। अगर टी.बी. रोग में रोगी की टांग या हाथ की हड्डी काटनी पड़े और रोगी को हड्डी में दर्द लगातार बना रहे तो इस औषधि का सेवन अच्छा रहता है। इस औषधि की 30 या 200 शक्ति रोगी को दी जा सकती है। इसी के साथ रोगी को इसका मूलार्क भी दिया जा सकता है।


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